कबीर के 25 प्रसिद्ध दोहे अर्थ सहित
    24 Aug
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    🕉️ कबीर के 25 प्रसिद्ध दोहे अर्थ सहित | Kabir Ke Prasiddh Dohe in Hindi with Meaning


     


     

    📜 Introduction (परिचय):

    संत कबीर दास जी हिन्दी साहित्य के महानतम संत कवियों में से एक हैं। उनके दोहे आज भी उतने ही सार्थक हैं जितने उस युग में थे। उन्होंने सादा जीवन, सच्चे भक्ति मार्ग और सामाजिक एकता का संदेश दिया। इस ब्लॉग पोस्ट में हम लेकर आए हैं कबीर के 25 प्रसिद्ध दोहे अर्थ सहित, जो आपके जीवन को दिशा और प्रेरणा देंगे।


    कबीर के 25 प्रसिद्ध दोहे (Kabir ke Prasiddh Dohe) अर्थ सहित

    1.

    बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
    जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय॥

    अर्थ: जब मैंने दूसरों में बुराई खोजी, तो कोई बुरा नहीं मिला। जब अपने भीतर झांका, तो पाया कि सबसे बुरा मैं ही हूँ।


    2.

    पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
    ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय॥

    अर्थ: किताबें पढ़-पढ़कर लोग मर गए लेकिन कोई सच्चा ज्ञानी नहीं हुआ। जो ‘प्रेम’ के ढाई अक्षर को जान गया, वही सच्चा ज्ञानी है।


    3.

    साईं इतना दीजिए, जा मे कुटुंब समाय।
    मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय॥

    अर्थ: प्रभु! मुझे इतना दीजिए कि मेरा परिवार भी चले और आने वाला अतिथि भी भूखा न लौटे।


    4.

    धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
    माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आये फल होय॥

    अर्थ: मनुष्य को धैर्य रखना चाहिए। समय आने पर ही फल मिलता है, चाहे आप कितना भी प्रयास करें।


    5.

    दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय।
    जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे को होय॥

    अर्थ: दुःख में तो सब भगवान को याद करते हैं, यदि सुख में भी करें तो कभी दुःख आये ही नहीं।


    6.

    जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
    मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥

    अर्थ: साधु की जाति नहीं, उसका ज्ञान देखो। जैसे तलवार की कीमत होती है, म्यान की नहीं।


    7.

    मोको कहाँ ढूंढे रे बन्दे, मैं तो तेरे पास में।
    ना मैं मंदिर, ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलास में॥

    अर्थ: हे मानव! तू मुझे बाहर क्यों ढूंढता है? मैं तो तेरे भीतर ही हूँ।


    8.

    जो उपजे सो विनसे, कहि कबीर यह देह।
    जाति-अजाति एक समाना, यह तत्त्व बिचारि ले रे॥

    अर्थ: जो जन्म लेता है वो मरेगा ही। यह शरीर नश्वर है। आत्मा सबमें एक समान है।


    9.

    कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर।
    ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर॥

    अर्थ: कबीर सबके भले की कामना करते हैं, न किसी से मित्रता, न किसी से द्वेष।


    10.

    एक साधु दस भिखारी, सांच कहो तो मारन धावे।
    झूठ कहो तो रस ले आवे, ऐसे जग से साधु क्या भावे॥

    अर्थ: सच्चाई कहो तो लोग गुस्सा करते हैं, झूठ बोलो तो खुश होते हैं। ऐसे झूठे संसार में संत कैसे टिके?


    11.

    कबीरा सोई पीर है, जो जाने पीर पराई।
    जो आप बीती आप ही जाने, और न जाने काई॥

    अर्थ: वही सच्चा संत है जो दूसरों का दुःख समझ सके।


    12.

    माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोहे।
    एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोहे॥

    अर्थ: मिट्टी कुम्हार से कहती है, मत रौंद मुझे — एक दिन ऐसा आएगा जब तू मुझमें मिल जाएगा।


    13.

    तन को जोगी सब करे, मन को विरला कोय।
    सहजै सब बिधि पाइये, जो मन जोगी होय॥

    अर्थ: शरीर से तप करने वाले बहुत हैं, पर जो मन को साध ले वही असली योगी है।


    14.

    सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
    जिसके हृदय सांच है, उसके हृदय आप॥

    अर्थ: सच्चाई सबसे बड़ा तप है और झूठ सबसे बड़ा पाप।


    15.

    निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय।
    बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय॥

    अर्थ: आलोचक को पास रखो, वो तुम्हारे स्वभाव को सुधारेगा।


    16.

    लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल।
    लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल॥

    अर्थ: प्रभु की भक्ति में ऐसा रंग है कि देखने वाला खुद रंग जाता है।


    17.

    जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।
    सब अंधियारा मिट गया, जब दीपक देख्या माहिं॥

    अर्थ: जब तक अहंकार था, ईश्वर नहीं दिखे। जब आत्मा में प्रभु को देखा, तो अज्ञान का अंधेरा मिट गया।


    18.

    चादर ज्यों की त्यों धरी दीन्हीं।
    सतगुरु नाम दिया जन लीन्हीं॥

    अर्थ: आत्मा को शुद्ध रखकर वापस लौटाना ही असली साधना है।


    19.

    राम नाम की लौ लगि रहे, जब लगि घट में प्राण।
    कबीर राम सम्हारते, और न सम्हारो जान॥

    अर्थ: जब तक जीवन है, राम नाम की लौ जलती रहनी चाहिए।


    20.

    मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा।
    आसन मारि मंदिर में बैठा, क्या साधे तप साधा॥

    अर्थ: जब मन में भक्ति नहीं तो शरीर से साधना का कोई मतलब नहीं।


    21.

    करता था तो क्यों रहा, अब कर क्यों पछताय।
    बोए पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय॥

    अर्थ: जैसा बोओगे, वैसा ही फल मिलेगा।


    22.

    प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
    राजा परजा जेहि रुचै, शीश देई ले जाय॥

    अर्थ: प्रेम न खेत में उपजता है, न बाजार में बिकता है — इसे पाने के लिए सब कुछ देना पड़ता है।


    23.

    कबीरा सो धन संचिए, जो आगे को होय।
    सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय॥

    अर्थ: वही धन संचित करो जो साथ जाए। बाकी सब यहीं रह जाएगा।


    24.

    माया मरी न मन मरा, मर-मर गया शरीर।
    आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर॥

    अर्थ: शरीर तो मरता है, पर मन की इच्छाएं नहीं मरतीं। यही जीवन का दुख है।


    25.

    जहाँ दया, तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप।
    जहाँ क्रोध तहाँ काल है, जहाँ क्षमा तहाँ आप॥

    अर्थ: दया में धर्म है, लोभ में पाप है, क्रोध मृत्यु समान है, और क्षमा में ईश्वर बसता है।


    🙏 Conclusion (निष्कर्ष):

    संत कबीर दास जी के दोहे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने सैकड़ों साल पहले थे। उनका हर दोहा जीवन का गहरा दर्शन कराता है — प्रेम, भक्ति, संयम, और आत्म-चिंतन। आशा है आपको ये संग्रह पसंद आया होगा।

     


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